शनिवार, 6 सितंबर 2014

बोली के भगवान या भगवान की बोली.........
 इन दिनों उत्सवी माहौल शहर में दिखाई दे रहा है। पहले रक्षाबंधन, जन्माष्टमी, पर्यूषण व अब गणेशोत्सव। आयोजन-महाआरती का दौर लगभग हर जगह देखने को मिला। यह सबकुछ परंपरागत ही है। इसमें अगर बदलाव देखने को मिल रहा है तो बोली का। हमारी बोल अौर बोली दोनों ही बदल रहे हैं। भगवान  की आरती के लिए बोली लगती है लेकिन भगवान के बोल याद नहीं रहते। हमारे व्यवहार में दो स्तर हो गए हैं। एक आचरण का तो दूसरा अावरण का। दरअसल जैसा हमारा आचरण है वैसा हम दिखना नहीं चाहते, इसके चलते आवरण की अाड़ में खुद को झूठलाने की कोशिश करते हैं। किसी ने कहा कि अच्छे लग रहे हो तो खुश हो गए, किसी ने कहा कि बुरे लग रहे तो निराश। मसलन हमारा हम पर कोई नियंत्रण नहीं बचा। देवस्थानों पर उत्सवी माहौल में होने वाली अारती के बोल अच्छी बोली में बोलने के लिए कार्यकर्ता ढूंढे जाते हैं लेकिन इन बोल को आत्मसात करने का रास्ता नहीं खोजा जाता।

बुधवार, 15 अप्रैल 2009

स्वामी अवधेशानन्द गिरि में अधिक सम्भावनायें इस कारण दिखती हैं कि उन्होंने विश्व के समक्ष और भारत के समक्ष प्रस्तुत चुनौतियों को सही सन्दर्भ में लिया है। उनकी दृष्टि में विश्व में एक प्रवृत्ति तेजी से बढ रही है और वह है भण्डारण की प्रवृत्ति या अधिक से अधिक अपने अधिकार में वस्तुओं को ले लेने की प्रवृत्ति। लेकिन इसके लिये कुछ महाशक्तियों को दोष देने या प्रवचन तक सीमित रहने के स्थान पर उन्होंने इसका एक समाधान भी खोजा है

‘’जो समय को नष्‍ट करता है, समय भी उसे नष्‍ट कर देता है, समय का हनन करने वाले व्‍यक्ति का चित्‍त सदा उद्विग्‍न रहता है, और वह असहाय तथा भ्रमित होकर यूं ही भटकता रहता है, प्रति पल का उपयोग करने वाले कभी भी पराजित नहीं हो सकते, समय का हर क्षण का उपयोग मनुष्‍य को विलक्षण और अदभुत बना देता है’’