शनिवार, 6 सितंबर 2014

बोली के भगवान या भगवान की बोली.........
 इन दिनों उत्सवी माहौल शहर में दिखाई दे रहा है। पहले रक्षाबंधन, जन्माष्टमी, पर्यूषण व अब गणेशोत्सव। आयोजन-महाआरती का दौर लगभग हर जगह देखने को मिला। यह सबकुछ परंपरागत ही है। इसमें अगर बदलाव देखने को मिल रहा है तो बोली का। हमारी बोल अौर बोली दोनों ही बदल रहे हैं। भगवान  की आरती के लिए बोली लगती है लेकिन भगवान के बोल याद नहीं रहते। हमारे व्यवहार में दो स्तर हो गए हैं। एक आचरण का तो दूसरा अावरण का। दरअसल जैसा हमारा आचरण है वैसा हम दिखना नहीं चाहते, इसके चलते आवरण की अाड़ में खुद को झूठलाने की कोशिश करते हैं। किसी ने कहा कि अच्छे लग रहे हो तो खुश हो गए, किसी ने कहा कि बुरे लग रहे तो निराश। मसलन हमारा हम पर कोई नियंत्रण नहीं बचा। देवस्थानों पर उत्सवी माहौल में होने वाली अारती के बोल अच्छी बोली में बोलने के लिए कार्यकर्ता ढूंढे जाते हैं लेकिन इन बोल को आत्मसात करने का रास्ता नहीं खोजा जाता।

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